मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार का दौर अब ख़त्म हो गया है, सभी राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से चुनाव में पूरी ताकत झोंक चुके हैं पर जैसा कि पहले से सम्भावित था, मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के ही बीच है। जहाँ भाजपा तीसरी बार सत्ता में आने के सपने देख रही है वहीँ कांग्रेस को अपने दस साल के वनवास को ख़त्म कर सत्ता में वापसी कि पूरी उम्मीद है।
इस बार का चुनाव दोनों ही दलों के लिए बहोत मायने रखता है क्योंकि भाजपा के लिए इस चुनाव कि जीत उसके मोदी के सम्बन्ध में लिए फैसले पर जनता कि मुहर कहलायेगी, वहीँ कांग्रेस के लिए ये जीत सत्ता में वापसी तो होगी ही साथ साथ २०१४ के लोकसभा चुनावों के लिए आइना भी होगी। कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए मुद्दे इस चुनाव में बड़ी समस्या रहे, क्योंकि जब जब कांग्रेस ने प्रदेश के भ्रष्टाचार कि बात कि तब तब उसे केंद्र कि कहानी याद आई जब जब भाजपा ने केंद्र के भ्रष्टाचार कि बात कि उसे अपने प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार भी याद था। विकास कि दोनों कि अपनी अपनी परिभाषा देखने को मिली, शिवराज जिस विकास का गुणगान करते रहे हक़ीक़त में उनमे से अधिकतर योजनाये केंद्र सरकार कि थी जिसे नाम बदल कर प्रदेश में लागु लिया गया, वही कांग्रेस विकास कि बात करती जब भी दिखी मंहगाई ने उसके दम और दावे को उतनी मजबूती के साथ जनता के बीच नहीं आने दिया। कांग्रेस जहाँ गुटबाजी से बाहर निकलकर अपने लक्ष्य कि ओर अग्रसर रही वहीँ भाजपा अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर मौन रहकर विधायकों कि नाराजगी से सम्भावित नुकसान कि भरपाई में व्यस्त रही।
सत्ता विरोधी लहर को भी इस बार नजर अन्दाज करना भाजपा के लिए इतना आसान
नहीं था, वहीँ उमा भारती, प्रभात झा व जिन विधायकों, मंत्रियों के टिकट कटे एवं अन्य असंतुष्ट या साफ़ शब्दों में
कहें तो शिवराज विरोधी लोगों ने भी भाजपा के प्रदेश सिंहासन को अस्थिर करने में
कोई कसर नहीं छोड़ी, और फिर अगर भाजपा इनका सामना कर भी ले जाये तो
प्रदेश में नारी अपराध का बढ़ता ग्राफ, लचर क़ानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार से
त्रस्त आम जनमानस इन्हें कितना माफ़ करता है देखना दिलचस्प होगा। पिछले पांच वर्षों में मध्यप्रदेश
में लोकायुक्त पुलिस ने भ्रष्टाचार के जितने मामले उजागर किये इतने देश के
किसी अन्य प्रदेश में देखने को नहीं मिलते, इसे मुख्यमंत्री बेशक लोकायुक्त
की सक्रियता या भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती के तौर पर देखते हों परन्तु
हकीक़त केवल एक है की प्रदेश में नौकरशाही बलवान है व भ्रष्टाचार चरम पर है,
अधिकारी कर्मचारी निरंकुश हैं और महत्वपूर्ण योजनायें लेनदेन की भेंट चढ़
रही है शायद विधानसभा चुनाव में भाजपा कि हार का ये बहोत बड़ा कारण बनेगा।
मनरेगा में बगैर पूरी तैयारी के ई-एफएमएस लागू
करके सरकार ने जिस तरह से योजना को बर्बाद किया है व गरीबों से दो वक़्त की
रोटी के हक़ को छीना है उसे सरकार बेशक अपनी तकनीकी क्षमता के तौर पर देखती
हो परन्तु गरीबों के लिए ये केवल मुह से निवाला छीनना जैसा था।
ओपिनियन पोल के नतीजों ने आम जनता को कुछ भ्रमित, कांग्रेस को कुछ चिंतित और भाजपा के कार्यकर्ताओं को कुछ उत्साहवर्द्धित जरुर किया पर इससे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बिल्कुल भ्रमित नहीं हुआ क्योंकि भाजपा के आंतरिक सर्वे के मुताबिक मध्य प्रदेश में पुनः सरकार बनाना बहोत मुश्किल था, भाजपा को अपने विधायकों कि संख्या १४३ से कम होकर १०१ होती दिख रही थी नतीजतन भाजपा ने बड़ी संख्या में अपने मौजूदा विधायकों यहाँ तक कि मंत्रियों के टिकट काटने का निर्णय लिया और अपने सर्वे से सबक लेने कि कोशिश की।
भाजपा शायद अपने पिछले दो विधानसभा चुनाव के आकंड़ो से भी भयभीत थी मसलन
अगर आप 2003 के विधानसभा चुनाव परिणाम पर गौर करें तो आप पाएंगे की भाजपा
को कुल मतदान के 42.50 प्रतिशत वोट के साथ 173 सीटों पर सफलता प्राप्त
हुयी थी वहीँ कांग्रेस को 31.70 प्रतिशत वोट के साथ केवल 38 सीटों की सफलता
से समझौता करना पड़ा था लेकिन 2008 के विधानसभा चुनाव परिणाम पर अगर हम नजर
डालें तो भाजपा का गिरता ग्राफ नजर आएगा, 2008 के विधानसभा चुनाव
में भाजपा को कुल मतदान के 38.09 प्रतिशत वोट के साथ 143 सीटों पर
ही सफलता प्राप्त हुयी थी जो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में वोट
प्रतिशत में 4.41 प्रतिशत कम व सीटों की संख्या में 30 सीट कम है, वहीं
कांग्रेस को 2008 के चुनाव में कुल मतदान का 32.85 प्रतिशत वोट के साथ 71
सीटों पर सफलता प्राप्त हुयी जो पिछले विधानसभा के कांग्रेस के पक्ष में
हुए मतदान प्रतिशत से 1.15 प्रतिशत अधिक और सीटों की संख्या में 33 सीटों
का इजाफा है। इसके अतिरिक्त अगर हम 2008 में भाजपा को मिली 143 सीटों में जीत के अंतर को
देखें तो भाजपा के 45 प्रत्याशियों ने 5000 से भी कम वोटों से अपनी जीत
दर्ज की वहीँ 2000 से कम वोटों से जीतने वाले भाजपा प्रत्याशियों की
संख्या 20 व 1000 से कम वोटो से जीतने वाले प्रत्याशियों की संख्या लगभग 13 थी।
आंकड़े और सर्वे ही काफी थे भाजपा कि नींद उड़ाने के लिए पर बात यहीं जाकर नहीं रुकी, आरएसएस जो कि भाजपा कि पालक संस्था के नाम से जानी जाती है , ने भी मध्य प्रदेश में भाजपा कि स्थति को जानने के लिए एक सर्वे कराया और उसका आकलन इन सबसे ज्यादा अलग होते हुए भाजपा को बेहद संकट में दर्शा रहा था।
वहीँ कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाते हुये मुख्यमंत्री पद के दावेदार कि अनौपचारिक घोषणा करके जनता के समक्ष एक सशक्त विकल्प प्रस्तुत कर दिया जो कांग्रेस कि छबि का पुनर्निर्धारण करने के लिए काफी था।
पिछले दस साल से अकेले मैदान में ताल ठोक रही भाजपा को पसीने आ गए, अधिकतर मंत्री कांग्रेस कि टिकट बटवारे कि रणनीति का शिकार होकर अपने क्षेत्र में और अपनी सीट बचाने में ही व्यस्त रहे वहीँ कांग्रेस के सभी दिग्गज अपने अपने क्षेत्रों में अपने उम्मीदवारों के प्रति बढता जनसमर्थन देख उत्साहित होकर कार्य करते दिखे। कांग्रेस कि टिकट बटवारे कि रणनीति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सुरेश पचोरी जो कि अपने बेटे को टिकट दिलाना चाहते थे, खुद चनाव मैदान में आने को मजबूर हुये क्योंकि सवाल एक सीट का था और कांग्रेस सीटों कि संख्या में कोई समझौता नहीं चाहती थी।
मध्य प्रदेश में मोदी का जादू कभी भी नहीं था और इस चुनाव में भी नहीं दिखा, मोदी के अप्रासंगिक भाषणो के चर्चे पूरे देश में थे सो जो उन्हें सुनने गया भी वो उनके सच और झूठ को परखने गया, इसके अतिरिक्त मीडिया पूरे देश को बता चुका था कि शिवराज आडवाणी गुट के हैं और मोदी आडवाणी के अरमानो को सीढ़ी बनाकर यहाँ आये हैं इसलिए शिवराज समर्थकों के सामने मोदी केवल स्वयंभू प्रधानमंत्री पद के दावेदार के सिवा कुछ नहीं थे। मोदी जिस गुजरात के विकास की चर्चा करते रहे उसी विकास को आडवाणी ने मध्य प्रदेश के विकाश के आगे कमजोर बताया था जो जनता और खासतौर पर भाजपा समर्थकों को भलीभांति मालूम है। प्रदेश कि जनता ने ये भी देखा कि मोदी २००२ के दंगों के दाग को साफ़ करने के लिए बेशक उपवास करते दिखें हों पर आगरा में मुजफ्फरपुर दंगों के आरोपियों को सम्मानित करके दंगों के समर्थन पर मुहर लगा बैठे। मोदी शायद अपनी सभाओं में उमड़ती भीड़ को लेकर थोड़े खुस हुए भी हों पर गुजरात कैडर के आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा ने उनके ऊपर एक लड़की से नजदीकियों और उसकी जासूसी के आरोप लगा कर फिर उनके चरित्र का विचित्र चित्र प्रस्तुत कर दिया।
नतीजा साफ़ था और है कि भाजपा अपने बुने जालों में उलझती चली गयी और कांग्रेस आगे बढ़ती चली गयी, आज के परिदृक्ष्य पर अगर नजर डालें तो कांग्रेस १२९ से १३३ सीट लेकर सरकार बनाती दिख रही है वही भाजपा ८० से ९० सीटों में सिमटती दिख रही है।