Saturday, November 23, 2013

मप्र विधानसभा चुनाव - परिणाम का असमंजस अब उतना नहीं।



मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार का दौर अब ख़त्म हो गया है, सभी राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से चुनाव में पूरी ताकत झोंक चुके हैं पर जैसा कि पहले से सम्भावित था, मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के ही बीच है। जहाँ भाजपा तीसरी बार सत्ता में आने के सपने देख रही है वहीँ कांग्रेस को अपने दस साल के वनवास को ख़त्म कर सत्ता में वापसी कि पूरी उम्मीद है।
इस बार का चुनाव दोनों ही दलों के लिए बहोत मायने रखता है क्योंकि भाजपा के लिए इस चुनाव कि जीत उसके मोदी के सम्बन्ध में लिए फैसले पर जनता कि मुहर कहलायेगी, वहीँ कांग्रेस के लिए ये जीत सत्ता में वापसी तो होगी ही साथ साथ २०१४ के लोकसभा चुनावों के लिए आइना भी होगी। कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए मुद्दे इस चुनाव में बड़ी समस्या रहे, क्योंकि जब जब कांग्रेस ने प्रदेश के भ्रष्टाचार कि बात कि तब तब उसे केंद्र कि कहानी याद आई जब जब भाजपा ने केंद्र के भ्रष्टाचार कि बात कि उसे अपने प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार भी याद था।  विकास कि दोनों कि अपनी अपनी परिभाषा देखने को मिली, शिवराज जिस विकास का गुणगान करते रहे हक़ीक़त में उनमे से अधिकतर योजनाये केंद्र सरकार कि थी जिसे नाम बदल कर प्रदेश में लागु लिया गया, वही कांग्रेस विकास कि बात करती जब भी दिखी मंहगाई ने उसके दम और दावे को उतनी मजबूती के साथ जनता के बीच नहीं आने दिया।  कांग्रेस जहाँ गुटबाजी से बाहर निकलकर अपने लक्ष्य कि ओर अग्रसर रही वहीँ भाजपा अपने मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर मौन रहकर विधायकों कि नाराजगी से सम्भावित नुकसान कि भरपाई में व्यस्त रही।  
सत्ता विरोधी लहर को भी इस बार नजर अन्दाज करना भाजपा के लिए इतना आसान नहीं था, वहीँ उमा भारती, प्रभात झा व जिन विधायकों, मंत्रियों के टिकट कटे एवं अन्य असंतुष्ट या साफ़ शब्दों में कहें तो शिवराज विरोधी लोगों ने भी भाजपा के प्रदेश सिंहासन को अस्थिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, और फिर अगर भाजपा इनका सामना कर भी ले जाये तो प्रदेश में नारी अपराध का बढ़ता ग्राफ, लचर क़ानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार से त्रस्त आम जनमानस इन्हें कितना माफ़ करता है देखना दिलचस्प होगा। पिछले पांच  वर्षों में मध्यप्रदेश में लोकायुक्त पुलिस ने भ्रष्टाचार के जितने मामले उजागर किये इतने देश के किसी अन्य प्रदेश में देखने को नहीं मिलते, इसे मुख्यमंत्री बेशक लोकायुक्त की सक्रियता या भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती के तौर पर देखते हों परन्तु हकीक़त केवल एक है की प्रदेश में नौकरशाही बलवान है व भ्रष्टाचार चरम पर है, अधिकारी कर्मचारी निरंकुश हैं और महत्वपूर्ण योजनायें लेनदेन की भेंट चढ़ रही है शायद विधानसभा चुनाव में भाजपा कि हार का ये बहोत बड़ा कारण बनेगा। 
मनरेगा में बगैर पूरी तैयारी के ई-एफएमएस लागू करके सरकार ने जिस तरह से योजना को बर्बाद किया है व गरीबों से दो वक़्त की रोटी के हक़ को छीना है उसे सरकार बेशक अपनी तकनीकी क्षमता के तौर पर देखती हो परन्तु गरीबों के लिए ये केवल मुह से निवाला छीनना जैसा था। 
ओपिनियन पोल के नतीजों ने आम जनता को कुछ भ्रमित, कांग्रेस को कुछ चिंतित और भाजपा के कार्यकर्ताओं को कुछ उत्साहवर्द्धित जरुर किया पर इससे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बिल्कुल भ्रमित नहीं हुआ क्योंकि  भाजपा के आंतरिक सर्वे के मुताबिक मध्य प्रदेश में पुनः सरकार बनाना बहोत मुश्किल था, भाजपा को अपने विधायकों कि संख्या १४३ से कम होकर १०१ होती दिख रही थी नतीजतन भाजपा ने बड़ी संख्या में अपने मौजूदा विधायकों यहाँ तक कि मंत्रियों के टिकट काटने का निर्णय लिया और अपने सर्वे से सबक लेने कि कोशिश की। 
भाजपा शायद अपने पिछले दो विधानसभा चुनाव के आकंड़ो से भी भयभीत थी मसलन अगर आप 2003 के विधानसभा चुनाव परिणाम पर गौर करें तो आप पाएंगे की भाजपा को कुल मतदान के  42.50 प्रतिशत वोट के साथ 173 सीटों पर सफलता प्राप्त हुयी थी वहीँ कांग्रेस को 31.70 प्रतिशत वोट के साथ केवल 38 सीटों की सफलता से समझौता करना पड़ा था लेकिन 2008 के विधानसभा चुनाव परिणाम पर अगर हम नजर डालें तो भाजपा का गिरता ग्राफ नजर आएगा, 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कुल मतदान के  38.09 प्रतिशत वोट के साथ 143 सीटों पर ही सफलता प्राप्त हुयी थी जो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में वोट प्रतिशत में  4.41 प्रतिशत कम व सीटों की संख्या में  30 सीट कम है, वहीं कांग्रेस को 2008 के चुनाव में कुल मतदान का 32.85 प्रतिशत वोट के साथ 71 सीटों पर सफलता प्राप्त हुयी  जो पिछले विधानसभा के कांग्रेस के पक्ष में हुए मतदान प्रतिशत से 1.15 प्रतिशत अधिक और सीटों की संख्या में 33 सीटों का इजाफा है। इसके अतिरिक्त अगर हम 2008 में भाजपा को मिली 143 सीटों में जीत के अंतर को देखें तो भाजपा के 45 प्रत्याशियों ने  5000 से भी कम वोटों से अपनी जीत दर्ज की वहीँ 2000 से कम वोटों से जीतने वाले भाजपा प्रत्याशियों की संख्या 20 व 1000 से कम वोटो से जीतने वाले प्रत्याशियों की संख्या लगभग 13 थी।  
आंकड़े और सर्वे ही काफी थे भाजपा कि नींद उड़ाने के लिए पर बात यहीं जाकर नहीं रुकी, आरएसएस जो कि भाजपा कि पालक संस्था के नाम से जानी जाती है , ने भी मध्य प्रदेश में भाजपा कि स्थति को जानने के लिए एक सर्वे कराया और उसका आकलन इन सबसे ज्यादा अलग होते हुए भाजपा को बेहद संकट में दर्शा रहा था। 
वहीँ कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाते हुये मुख्यमंत्री पद के दावेदार कि अनौपचारिक घोषणा करके जनता के समक्ष एक सशक्त विकल्प प्रस्तुत कर दिया जो कांग्रेस कि छबि का पुनर्निर्धारण करने के लिए काफी था।  
पिछले दस साल से अकेले मैदान में ताल ठोक रही भाजपा को पसीने आ गए, अधिकतर मंत्री कांग्रेस कि टिकट बटवारे कि रणनीति का शिकार होकर अपने क्षेत्र में और अपनी सीट बचाने में ही व्यस्त रहे वहीँ कांग्रेस के सभी दिग्गज अपने अपने क्षेत्रों में अपने उम्मीदवारों के प्रति बढता जनसमर्थन देख उत्साहित होकर कार्य करते दिखे।  कांग्रेस कि टिकट बटवारे कि रणनीति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सुरेश पचोरी जो कि अपने बेटे को टिकट दिलाना चाहते थे, खुद चनाव मैदान में आने को मजबूर हुये क्योंकि सवाल एक सीट का था और कांग्रेस सीटों कि संख्या में कोई समझौता नहीं चाहती थी।  
मध्य प्रदेश में मोदी का जादू कभी भी नहीं था और इस चुनाव में भी नहीं दिखा, मोदी के अप्रासंगिक भाषणो के चर्चे पूरे देश में थे सो जो उन्हें सुनने गया भी वो उनके सच और झूठ को परखने गया, इसके अतिरिक्त मीडिया पूरे देश को बता चुका था कि शिवराज आडवाणी गुट के हैं और मोदी आडवाणी के अरमानो को सीढ़ी बनाकर यहाँ आये हैं इसलिए शिवराज समर्थकों के सामने मोदी केवल स्वयंभू प्रधानमंत्री पद के दावेदार के सिवा कुछ नहीं थे। मोदी जिस गुजरात के विकास की चर्चा करते रहे उसी विकास को आडवाणी ने मध्य प्रदेश के विकाश के आगे कमजोर बताया था जो जनता और खासतौर पर भाजपा समर्थकों को भलीभांति मालूम है। प्रदेश कि जनता ने ये भी देखा कि मोदी २००२ के दंगों के दाग को साफ़ करने के लिए बेशक उपवास करते दिखें हों पर आगरा में मुजफ्फरपुर दंगों के आरोपियों को सम्मानित करके दंगों के समर्थन पर मुहर लगा बैठे।  मोदी शायद अपनी सभाओं में उमड़ती भीड़ को लेकर थोड़े खुस हुए भी हों पर गुजरात कैडर के आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा ने उनके ऊपर एक लड़की से नजदीकियों और उसकी जासूसी के आरोप लगा कर फिर उनके चरित्र का विचित्र चित्र प्रस्तुत कर दिया।  
नतीजा साफ़ था और है कि भाजपा अपने बुने जालों में उलझती चली गयी और कांग्रेस आगे बढ़ती चली गयी, आज के परिदृक्ष्य पर अगर नजर डालें तो कांग्रेस १२९ से १३३ सीट लेकर सरकार बनाती दिख रही है वही भाजपा ८० से ९० सीटों में सिमटती दिख रही है।

Saturday, August 3, 2013

भारतीय प्रशासनिक सेवा को लेकर शिवराज सरकार का दोहरा चरित्र

आज एक बार फिर भारतीय प्रशासनिक सेवा को लेकर शिवराज सरकार का दोहरा चरित्र सामने आया है जब एक राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी को खुस करने या फिर यूँ कहें की राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी की राजनीतिक पहुँच के चलते सीधी भर्ती के भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी का स्थानांतरण महज १३ दिनों में इस लिए कर दिया गया क्योंकि जहाँ एक ओर  भ्रष्टाचारियों के मंसूबे नाकाम होते नजर आ रहे थे वहीँ भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले कुछ लोग एक इमानदार कर्मठ अधिकारी के  साथ मिलकर विकास की एक नयी इबारत लिखने की तैयारी में थे जो आज के परिवेश में नदी में बहती जल धारा के विपरीत तैरने के प्रयास जैसा है। 
हैरानी तो तब होती है जब एक ओर भाजपा उत्तर प्रदेश कैडर की भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के पक्ष में नॉएडा में आन्दोलन कर विरोध जताती है और वहीँ दूसरी ओर  भाजपा अपने स्वशासी प्रदेश  मध्य प्रदेश में अकारण एक अधिकारी का १३ दिनों में स्थानांतरण कर अपनी शक्तियों के दुरूपयोग का उदहारण पेश करती है, पर मुद्दा यहीं पर आकर समाप्त नहीं हो जाता बल्कि अचम्भा तो तब और होता है जब इस स्थान पर पुनः उसी अधिकारी की नियुक्ति कर दी जाती जिसे ढाई वर्ष का कार्य काल पूरा करने के पश्चात महज १३ दिन पहले स्थानांतरित किया गया हो। 
इसमें कोई दो राय नहीं की अधिकारीयों की पदोन्नति और पदस्थापना राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है पर इस अधिकार का उपयोग राज्य सरकार अपने निजी हित को साधने में नहीं बल्कि जनता के हित को ध्यान में रखकर किया करती है, ताकि प्रदेश में विकास हो, अमन चैन बना रहे, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण किया जा सके और शासन और प्रशासन के बीच बेहतर समन्वय बना रहे, पर सरकार ने इस बार निर्णय जनता के हित को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि एक अधिकारी की महत्वाकांक्षा को ध्यान में रखकर या यूँ कहें की अधिकारी ने अपनी राजनीतिक पहुँच साबित करने के लिए राज्य सरकार को अपने निर्णय को महज १३ दिन में बदलने के लिए विवश कर दिया और सरकार घुटनों के बल खड़े होकर बेशर्मी के अंदाज में खीसें निपोर रही है। 
सरकार को प्रदेश के आमजनमानस को बताना ही होगा की ऐसी कौन सी वजह थी की उक्त अधिकारी का जिले से स्थानांतरण किया गया और फिर ऐसी कौन सी अद्रश्य मजबूरियां सामने आई की सरकार अपने निर्णय पर कायम नहीं रह पाई, ये भी समझ से परे है की जिस अधिकारी को जिले से बाहर करना १३ दिन पहले एक प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा था, १३ दिन बाद वो प्रशासनिक व्यवस्था  ना जाने किस विवशता का शिकार हो गयी ओर कल जो इस दरवाजे से निकाले गए थे आज उसी के लिए दरवाजे न केवल खोले गए बल्कि तोड़ दिए गए और अब वो दिन दूर नहीं जब दीवारों को तोड़ने का काम इन्ही को दिया जाएगा अब वो दीवारें इमानदारी की हों या विकास की। 
सरकार का ये कदम साबित करता है कि स्थानांतरण और पदस्थापनाएं आज भी राजनीतिक दबदबा बनाने का एक जरिया है और अधिकारियों को अपने स्वार्थ की पूर्ती ना होने पर सजा के स्वरुप सरकार से मिलने वाला एक सबक, एक दंड और एक सन्देश है जो बड़े बड़े  आदर्शों और सिद्धांतों की बलि लेकर देश में अपेक्षित सुराज और सुशासन  की परिकल्पना को धूमिल करता है। 
मै बात कर रहा हूँ मध्यप्रदेश के बैतूल जिले की जहाँ के जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी श्री शिवनारायण सिंह चौहान का स्थानांतरण १३ दिन पहले अपर कलेक्टर रायसेन किया गया था और उनके स्थान पर सीधी भर्ती के आई ए एस अधिकारी श्री गणेश शंकर मिश्रा को बैतूल जिले की जिला पंचायत की कमान सौंपी गयी थी, श्री मिश्रा ने पदभार ग्रहण करने के बाद बैतूल जिले में जैसे ही विकास की एक नयी इबारत लिखने की कोशिश की, राज्य सरकार ने महज १३ दिन में इस कोशिश को शैशवावस्था में ही दफ़न कर दिया और दुबारा श्री शिवनारायण सिंह चौहान को बैतूल निजी संपत्ति की माफिक उपहार स्वरुप दे दिया।
जहाँ एक और श्री चौहान का अतीत अपने वरिष्ठों से अनुशासनहीनता और अपने कनिष्ठों को प्रताड़ित करने से शुरू होता है वहीँ उनकी इस स्तर की राजनीतिक पहुँच साबित करती है की राजनेताओं के लिए किसी अधिकारी का पक्ष लेने का कोई मापदंड नहीं है बल्कि ये सब मौका परस्त लोग हैं अपनी महत्वाकांक्षा और अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए किसी भी  स्तर तक गिर सकते हैं। श्री चौहान शाजापुर में चुनाव के दौरान गुजरात कैडर की महिला आई ए एस पर्यवेक्षक के साथ अभद्रता के मामले में जहाँ जांच का सामना कर रहे हैं वहीँ देवास के तत्कालीन कलेक्टर और जिला पंचायत के अध्यक्ष के साथ बदसलूकी करने की सजा के तौर पर सीधी स्थानांतरित हो चुके हैं पर फिर अपनी राजनीतिक पहुँच का लाभ लेकर बैतूल पहुँच गए थे और पुनः पहुँच गए है ये बहोत कुछ साबित करता है । 
श्री मिश्रा के ह्रदय की व्यथा इस वक़्त बहोत कुछ बयाँ करना  चाहती होगी पर एक इमानदार और कर्मठ आई ए एस अधिकारी जिसने अपनी शासकीय सेवा की शुरुआत महज २ वर्ष पहले की हो उसके लिए स्थानांतरण और पदस्थापना सरकार का विशेषाधिकार है और वो सरकार के इस निर्णय को शासकीय सेवा का एक अंग समझ कर स्वीकार भी कर लेंगे क्योंकि उन्हें अभी नहीं पता की राजनीतिक लोगों के लिए शासकीय सेवकों का   स्थानांतरण और उनकी पदस्थापना एक व्यवसाय है। 
मुझे नहीं मालूम की इस घटना के बाद श्री मिश्रा के मन में क्या चल रहा होगा पर मै इतना जरूर जानता हूँ की मानव स्वभाव प्रश्न करने का आदि है और इस वक़्त उनके मन में कई प्रश्न सरकार के लिए और उनके परिजनों के मन में कई प्रश्न उनके लिए होंगे जो जानना चाहेंगे की क्या मजबूरी है या क्यों लाचार है ये सरकार जो १३ दिन पहले मुझे जिस जिले के योग्य समझती थी वो महज १३ दिन भी अपने निर्णय पर कायम नहीं रह पायी।
मध्यप्रदेश भारतीय प्रशासनिक सेवा संघ नॉएडा की दुर्गा शक्ति नागपाल के तो साथ खड़ा है पर अपने ही प्रदेश के एक नवनियुक्त अधिकारी के हितों की रक्षा उसे सरकार का विरोध प्रतीत होती है शायद इसीलिए खामोश है। 
मै प्रदेश के मुखिया को बताना चाहता हूँ की प्रदेश की जनता इस स्थानांतरण के पीछे की हकीक़त जानती है और समझती है,अगर सरकार अपने इस निर्णय को वापस नहीं लेती है तो सरकार को अपनी वापसी का रास्ता देखना होगा, खूब सहा है, खूब बर्दाश्त किया है पर सहने और बर्दाश्त करने की एक सीमा है और उसके पार बगावत ।  पानी नाक तक भी हम सह लेंगे पर उसके ऊपर वही हाल होगा जो ९९ गालियों के बाद शिशुपाल का हुआ था।
 

Saturday, June 8, 2013

लोकतंत्र, नैतिकता और इस्तीफ़ा -

लोकतंत्र, नैतिकता और इस्तीफ़ा 

- अभय तिवारी 
09999999069
 

लोकतंत्र, नैतिकता और इस्तीफ़ा जैसे शब्द अब राजनीतिक शब्दावली  का पर्याय बन चुके हैं, हर राजनीतिक दल इन्ही शब्दों का उपयोग करके अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने में लगा हुआ  है जबकि हकीक़त ये है की ये शब्द अब नेताओ की कारगुजारी या साफ कहें काले कारनामों को छुपाने का बहोत बड़ा माध्यम बन चुके हैं हर कोई खुद को इनके दायरे से बाहर रखता है और दूसरों को इनके महत्व को बताने का प्रयास करता है, आम जनता भ्रमित होती है और बारी बारी से सब पर भरोसा करती है।
जिस भाजपा ने कुछ दिन पहले नैतिकता के आधार पर केंद्र सरकार से इस्तीफा - इस्तीफा खेलने की कोशिश की और सदन की कारवाही में व्यवधान उत्पन्न कर आम  जनता  के हितों को प्रभावित किया वही भाजपा बीसीसीआई और आईपीएल में नैतिकता भूल गयी, और भाजपा ही भर नहीं श्रीनिवासन के मुद्दे पर तमाम राजनीतिक दलों का जो रुख रहा है उससे तो यही साबित होता है की नैतिकता इन सभी के लिए एक पूँजी है जिसे जब जरुरत पड़ती है बेंचकर अपना काम चलाया जाता है। हर राजनीतिक दल को  नैतिकता केवल तब याद आती है जब विरोधी दल को कोसना होता है, ये नैतिकता कम और एक राजनीतिक हथियार ज्यादा नजर नजर आती है जिसका उपयोग हम आये दिन देखते है।
यूँ तो नैतिकता की परिभाषा सबको पता है पर राजनीती में इसकी कोई स्थायी परिभाषा नहीं है, छत्तीसगढ़ में राजनीतिक लोगों पर नक्सली हमला हुआ तो मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगने की वजह नैतिकता थी पर वहीँ कुछ दिन पहले जब सीआरपीफ के जवानों को निशाना बनाया गया तब शायद कांग्रेस को नैतिकता की याद नहीं आई, जवानों पर हमला महज एक नक्सली वारदात थी जिसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं था पर राजनीतिक लोगों पर हमला लोकतंत्र पर हमला माना गया और इसकी नैतिक जिम्मेदारी भी खोजने की पुरजोर कोशिश की गयी जिस पर तब विराम लगा जब एनआईए ने कांग्रेस के ही कुछ लोगों पर संदेह करना शुरू कर दिया।
मतलब साफ़ है की राजनीतिक दलों की मौका परस्ती आम जनमानस की समझ से परे है जिसका ये सब उपयोग करने की कोशिश करते है।


Wednesday, May 29, 2013

अब आसान नही भाजपा की जीत - Election 2013 in Madhya Pradesh

 

अब आसान नही भाजपा की जीत 

 
अभय तिवारी 
09999999069
 
                   आगामी विधानसभा चुनाओं में किस दल को बहुमत मिलेगा इसके कयास अभी से लोगों ने लगाना शुरू कर दिए हैं, जहाँ कांग्रेस गत वर्ष हुए विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव व हाल ही में संम्पन्न हुए कर्नाटक के चुनाव के साथ साथ मध्यप्रदेश के  स्थानीय निर्वाचन में मिली सफलता से उत्साहित है वही भाजपा अपने दागी मंत्रियों और निरंकुश प्रशाशन तंत्र की वजह से गिरती साख को बचाने का भरपूर प्रयास कर रही है।
 
                    भाजपा शायद अपने पिछले दो विधानसभा चुनाव के आकंड़ो से भी भयभीत है मसलन अगर आप 2003 के विधानसभा चुनाव परिणाम पर गौर करें तो आप पाएंगे की भाजपा को कुल मतदान के  42.50 प्रतिशत वोट के साथ 173 सीटों पर सफलता प्राप्त हुयी थी वहीँ कांग्रेस को 31.70 प्रतिशत वोट के साथ केवल 38 सीटों की सफलता से समझौता करना पड़ा था लेकिन 2008 के विधानसभा चुनाव परिणाम पर अगर हम नजर डालें तो भाजपा का गिरता ग्राफ नजर आएगा, 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कुल मतदान के  38.09 प्रतिशत वोट के साथ 143 सीटों पर ही सफलता प्राप्त हुयी थी जो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में वोट प्रतिशत में  4.41 प्रतिशत कम व सीटों की संख्या में  30 सीट कम है, वहीं कांग्रेस को 2008 के चुनाव में कुल मतदान का 32.85 प्रतिशत वोट के साथ 71 सीटों पर सफलता प्राप्त हुयी  जो पिछले विधानसभा के कांग्रेस के पक्ष में हुए मतदान प्रतिशत से 1.15 प्रतिशत अधिक और सीटों की संख्या में 33 सीटों का इजाफा है।
 
                     इसके अतिरिक्त अगर हम 2008 में भाजपा को मिली 143 सीटों में जीत के अंतर को देखें तो भाजपा के 45 प्रत्याशियों ने  5000 से भी कम वोटों से अपनी जीत दर्ज की वहीँ 2000 से कम वोटों से जीतने वाले भाजपा प्रत्याशियों की संख्या 20 व 1000 से कम वोटो से जीतने वाले प्रत्याशियों की संख्या लगभग 13 हैं, ये आंकड़े मै केवल इसलिए रख रहा हूँ की आप अनुमान लगा सकें की कितनी सीटों पर भाजपा बेहद असुरक्षित है। वहीँ एक सर्वे के मुताबिक भाजपा के 8 वर्तमान मंत्रियों की जीत भी लगभग नामुमकिन सी है इस अनुसार भाजपा की सीटों की संख्या 143 से कम  होकर मात्र 90 तक ही पहुँच सकती है, पर आंकड़े अभी और भी हैं जो भाजपा को सकते में डालने के लिए काफी हैं।
 
                       सत्ता विरोधी लहर को भी इस बार नजर अन्दाज करना भाजपा के लिए इतना आसान नहीं है, वहीँ उमा भारती, प्रभात झा जैसे अनेक असंतुष्ट या साफ़ शब्दों में कहें तो शिवराज विरोधी लोग भी भाजपा के प्रदेश सिंहासन को अस्थिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, और फिर अगर भाजपा इनका सामना कर भी ले जाये तो प्रदेश में नारी अपराध का बढ़ता ग्राफ, लचर क़ानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार से त्रस्त आम जनमानस इन्हें कितना माफ़ करता है देखना दिलचस्प होगा।
                         पिछले पांच  वर्षों में मध्यप्रदेश में लोकायुक्त पुलिस ने भ्रष्टाचार के जितने मामले उजागर किये इतने देश के किसी अन्य प्रदेश में देखने को नहीं मिलते, इसे मुख्यमंत्री बेशक लोकायुक्त की सक्रियता या भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्ती के तौर पर देखते हों परन्तु हकीक़त केवल एक है की प्रदेश में नौकरशाही बलवान है व भ्रष्टाचार चरम पर है, अधिकारी कर्मचारी निरंकुश हैं और महत्वपूर्ण योजनायें लेनदेन की भेंट चढ़ रही है शायद विधानसभा चुनाव में ये भी एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा।
                           मनरेगा में बगैर पूरी तैयारी के ई-एफएमएस लागू करके सरकार ने जिस तरह से योजना को बर्बाद किया है व गरीबों से दो वक़्त की रोटी के हक़ को छीना है उसे सरकार बेशक अपनी तकनीकी क्षमता के तौर पर देखती हो परन्तु अगर कांग्रेस  ई-एफएमएस के पीछे छुपी भाजपा की राजनीतिक मंसा को आम जनता को बताने में कामयाब हो जाती है तो शायद भाजपा को उस पराजय का मुह देखना पड़ सकता है जिसकी कल्पना तक भाजपा ने नहीं की होगी।
 
 
 
 


Friday, May 24, 2013

मनरेगा में ई-एफएमएस - योजना मूल उद्देश्य से भटकी E-fms In MGNREGA

मनरेगा में ई-एफएमएस - योजना मूल उद्देश्य से भटकी

- अभय तिवारी

 
             केंद्र सरकार की बहुचर्चित योजना महात्मा गाँधी राष्टीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना जॉबकार्ड धारी परिवार को सौ दिवस का रोजगार उपलब्ध  कराने  के अपने मूल उद्देश्य से भटकती जा रही है और उसका कारण योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए उठाये जा रहे अदूरदर्शी कदम है जिसका एक नमूना ई-एफएमएस  भी है।
             सरकार इस योजना में भ्रष्टाचार की रोज मिलती शिकायतों से इस कदर परेशान हो चुकी थी की भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए ऐसे प्रयोग कर बैठी जिससे भ्रष्टाचार पर कितना नियंत्रण होगा ये तो अभी महज एक कल्पना बनी हुयी है पर योजना के क्रियान्वयन पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभाव अभी से नजर आने लगे हैं। जहाँ लेबर बजट के अनुसार मई माह तक कुल 22271465 मानव दिवस का सृजन किया जाना था वहीँ आधी अधूरी तैयारी के साथ ई-एफएमएस  लागू करने के फलस्वरूप केवल 795825 मानव दिवस सृजित किया जा सका है जो निर्धारित लक्ष्य का मात्र 3.57  प्रतिशत है। वहीँ दूसरी ओर अगर हम योजना पर व्यय की बात करें तो लेबर बजट के मान से मई माह तक 57004.91 लाख का व्यय अनुमानित था परन्तु  ई-एफएमएस  की वजह से आ रही परेशानियों का नतीजा यह निकला की हम मई माह तक कुल 1806.71 लाख का ही व्यय योजना क्रियान्वयन पर कर पाए जो निर्धारित लक्ष्य का मात्र 3.10 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त योजना को पारदर्शी बनाने के लिए भारत सरकार द्वारा निर्मित एम आई एस सॉफ्टवेर में प्रदर्शित आंकड़े भी गलत प्रतीत होते हैं जैसे अगर हम श्रम और सामग्री के अनुपात की बात करें तो कुल व्यय का 1463.03 लाख श्रम में व्यय दर्शाया जा रहा है जो कुल व्यय का 84.78 प्रतिशत है और सामग्री में कुल व्यय 262.73 है जो कुल व्यय का 15.22 प्रतिशत है, यदि  श्रम  और  सामग्री  का  ये  अनुपात  पिछले वित्तीय वर्ष में होता तो  शायद  मध्यप्रदेश  इस  योजना  के  बेहतरीन  क्रियान्वन करने वाले राज्यों में प्रथम  स्थान  पर होता   परन्तु  ये  आकडे वित्तीय वर्ष 2013-2014 के हैं और सामग्री में व्यय इसलिए कम नहीं प्रदर्शित हो रहा है की श्रम प्रधान कार्य किये जा रहे हैं बल्कि सामग्री में व्यय कम प्रदर्शित होने का कारन भी  ई-एफएमएस  ही है जिसकी अनिवार्यता की वजह से सामग्री के भुगतान में तकनीकी समस्या आ रही है और जिसके जल्द निराकरण की दूर दूर तक कोई तस्वीर भी नजर नहीं आती।
              आप ये जानकार हैरान होंगे की मनरेगा कर्मियों का वेतन भी  ई-एफएमएस  की वजह से लम्बे समय से जारी नहीं हो पाया है वजह फिर वही है की बगैर संपूर्ण तकनीकी संसाधनों के  ई-एफएमएस  को लागू करना। आज भी प्रशासनिक व्यय के लिए  ई-एफएमएस  में कोई प्रावधान नहीं है, ऐसे में प्रश्न उठता है की राज्य सरकार को  ई-एफएमएस  व्यवस्था को लागू करने की ऐसी भी क्या जल्दी थी की एक सुविधा समूचे प्रदेश के मजदूरों, सामग्री प्रदाताओं व योजना से जुड़े कर्मियों के लिए सबसे बड़ी  असुविधा बन चुकी है।
             योजना के अंतर्गत मुख्यतः तीन तरह के भुगतान किये जाते हैं, मजदूरी का भुगतान, सामग्री का भुगतान व प्रशासनिक व्यय जिसके अंतर्गत मनरेगा कर्मियों के वेतन से लेकर योजना क्रियान्वयन के लिए आवश्यक अन्य व्यय शामिल हैं। जब राज्य सरकार के पास सामग्री और प्रशासनिक व्यय का  ई-एफएमएस  से भुगतान करने की पूर्ण तैयारी नहीं थी तब भुगतान के इस माध्यम को अपनाना और चेक जारी करने पर प्रतिबन्ध लगाना कितना उचित था।  
              मेरी बातों का आप ये अर्थ मत लगाइए की सामग्री का भुगतान व प्रशासनिक व्यय के लिए नहीं पर मजदूरी का भुगतान  ई-एफएमएस  के माध्यम से करने के लिए सरकार पूरी तरह से तैयार थी, नहीं ऐसा बिलकुल नहीं है।  ई-एफएमएस  के माध्यम से उन्ही श्रमिको को भुगतान किया जा सकता है जिनका बैंक खाता भुगतान हेतु फ्रीज किया गया हो और वर्तमान में कुल पंजीकृत 38469457 श्रमिको में से केवल 1749877 श्रमिकों के ही बैंक खाते फ्रीज़ हो पाए हैं जो निर्धारित लक्ष्य का मात्र 4.5 प्रतिशत है, अर्थात मध्यप्रदेश सरकार वर्तमान में  ई-एफएमएस  के माध्यम से  केवल 4.5 प्रतिशत श्रमिकों का ही भुगतान कर सकती है। आकड़ों से स्पष्ट है की राज्य सरकार की  ई-एफएमएस  लागू करने के पूर्व की तैयारियां लगभग शून्य थी ऐसे में सरकार को किसी भी नयी व्यवस्था को लागू करने से पहले योजना के मूल उद्देश्य को नहीं भूलना चाहिए था, हमारे पास भ्रष्टाचार को रोकने के लिए विभिन्न तरह की जांच एजेंसियां थी जिन्हें इसपर और मजबूती से काम करने के लिए बाध्य किया जा सकता था ना की लोगों को रोजगार की ग्यारंटी देने वाली योजना से रोजगार देने का काम बंद करना चाहिए था।
               आज आप किसी भी जनपद या जिला पंचायत कार्यालय जाकर अगर लोगों की  ई-एफएमएस  के बारे में  राय लेंगे तो हर अधिकारी और कर्मचारी एक सुर में इसे गलत करार देता नजर आयेगा परन्तु आज तक किसी भी जिले से किसी भी स्तर के अधिकारी ने  ई-एफएमएस  से योजना को हो रहे नुकसान से सरकार को अवगत नहीं कराया उसका मुख्य कारण ये था की जो भी  ई-एफएमएस  व्यवस्था के खिलाफ बोलेगा उसे भ्रष्टाचार का समर्थक माना जायेगा। आज मनरेगा से जुड़े हर अधिकारी और कर्मचारी के लिए  ई-एफएमएस  का समर्थन करना खुद को सबसे बड़ा इमानदार साबित करने का एक और एक मात्र रास्ता बचा है, समझ नहीं आता हर अधिकारी और कर्मचारी  ई-एफएमएस  का समर्थक और भ्रष्टाचार का विरोधी है तो फिर ये भ्रष्टाचार कर कौन रहा था।
            शायद सरकार  ई-एफएमएस  लागू करके प्रदेश को उच्च तकनीकी क्षमताओं वाले राज्यों में शामिल करना चाहती होगी पर यदि ऐसा है भी तो इन्हें केवल वही योजना नजर आई जिससे गरीब मजदूरों को दो वक़्त की रोटी नसीब होती है, क्या सरकार की अन्य योजनाओं में भ्रष्टाचार नहीं है जो इस तरह के प्रयोग वहां नहीं किये गए, या इस तरह के प्रयोग वहां नहीं किये गए जहाँ हितग्राही मध्यम या उच्च वर्गीय परिवार थे,  ई-एफएमएस  के पीछे की मंसा को भी गहराई से समझना और समझाना जरूरी है वर्ना वो दिन दूर नहीं जब गरीबों को रोटियां भी कंप्यूटर की स्क्रीन पर दिखाई जाएगी।
            चलिए अब  ई-एफएमएस  को राष्टीय स्तर पर देखते हैं, आप अचंभित हो जायेंगे की केवल मध्य प्रदेश ने ही अपने सभी जिलों में ये व्यवस्था लागू करके योजना को समाप्त किया है जबकि शतप्रतिशत साक्षर प्रदेश केरल में केवल 5 जिलों में, देश में सर्व प्रथम ई-गवर्नेंस को लागू करने और कंप्यूटर का शासकीय कार्यों में अधिकतम उपयोग करने वाले राज्य आँध्रप्रदेश में केवल 4 जिलों में, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में केवल 18 जिलों में और मध्यप्रदेश के विभाजित तथा भाजपा शासित छत्तीसगढ़ के केवल एक जिले में  ई-एफएमएस  व्यवस्था लागू है फिर मध्यप्रदेश को 48 जिलों में ये असफल प्रयोग करने की क्या सूझी होगी, जबकि हकीक़त ये है की जिन राज्यों का उदहारण दिया गया है ये  ई-एफएमएस  व्यवस्था लागू करने में मध्यप्रदेश से ज्यादा सक्षम थे परन्तु उन्होंने इसे केवल इस लिए लागू नहीं किया क्योंकि वो जानते थे कि  ई-एफएमएस  को लागू करने में आने वाली व्यवहारिक कठिनाईयां मजदूर से दो वक़्त की रोटी का हक भी छीन लेगी।
            देश में जितने भी बड़े निर्माण हुए हैं वो शायद इसीलिए संभव हो पाए की वहां  ई-एफएमएस  की प्राथमिकता से ज्यादा निर्माण की प्राथमिकता थी, अगर वहां भी  ई-एफएमएस  जैसी परिकल्पना कर ली जाती तो शायद हमें मैट्रो रेल, फ्लाई ओवर, उच्च स्तरीय सड़के, बड़े बड़े ब्रिज और अक्षरधाम जैसे भव्य मंदिर के निर्माण की केवल शुरुआत ही देखने का अवसर मिल पाता। आज तक सुना था कि कंप्यूटर जैसी तकनीक का उपयोग करके हम अपने कार्यों को तीव्रता दे सकते है और अपेक्षा से ज्यादा अच्छे परिणाम पा सकते हैं पर पहली बार ये देखने में आ रहा है की चंद लोगों की अदूरदर्शी सोच कैसे वरदान को अभिशाप में बदल सकती है। वो ग्रामीण लोग जो कंप्यूटर को एक जादू मानते थे अब उन्हें यकीन हो गया की ये सच में एक जादू ही है जिसने लोगों की थाली से रोटी गायब कर दी।
              शायद सरकार ये सोचती है की गाँव का गरीब   ई-एफएमएस  के पूरी तरह क्रियाशील होने का  इन्तेजार करेगा जबकि हकीक़त ये है की या तो वो प्रदेश से पलायन करेगा या फिर पैसा कमाने के अन्य रास्तो की ओर नजर ले जायेगा जिसमे अपराध भी शामिल होगा, फिर शायद हम  ई-एफएमएस  में सफल हो भी जाएँ तो क्या हम अपने नैतिक मूल्यों को खोकर आने वाले भारत के निर्माण की कल्पना करेंगे और निर्मित भारत कितना भयावह होगा इसकी परिकल्पना शायद हम अभी कर ही नहीं सकते।
           अविश्वास किस पर किया जा रहा है ये तो अभी नहीं मालूम पर  ई-एफएमएस  की आवश्यकता से तो यही जान पड़ता है की सरकार भ्रष्टाचार के लिए पूरी तरह से उस पंचायत सचिव को जिम्मेदार मान रही है जिसके बगैर इस योजना का क्रियान्वयन अकल्पनीय है।  
             चुनावी वर्ष में इतना गलत कदम किसी सोची समझी रणनीति का हिस्सा भी हो सकती है क्योंकि ये कदम चुनाव के नतीजों को प्रभावित करेगा परन्तु इसका लाभ  भाजपा को मिलेगा या कांग्रेस को इस बारे में मत भिन्न भिन्न हो सकते हैं पर इसका नुक्सान आम जनता भुगतेगी इस बारे में कोई मतभेद नहीं हैं।
 


Friday, March 15, 2013

Jindgi ko Jaisa Maine dekhs - जिन्दगी को जैसा मैंने देखा

हम सब मानव स्वरुप में इस प्रथ्वी के सबसे मूल्यवान तत्व हैं और जानते हैं की जीवन अजर, अमर,  और अविनाशी नहीं है बल्कि कोई भी शाम हमारी जिन्दगी की आखरी शाम हो सकती है, हमें इस सत्य का भी अहसास है कि  हम जिनके आसपास रहते है या जिनके साथ रहते हैं सब बारी बारी से अलग होते चले जायेंगे और दुनिया फिर भी यूँ ही चलती रहेगी, शायद जन्म और म्रत्यु कि यथार्थता के बीच के  भंवर को ही हम जीवन मानते हैं  जबकि सच्चाई ये है की जन्म और म्रत्यु के अलावा बाकि सब उस द्रश्य की तरह है जो हमारे जाने के बाद अद्रश्य हो  जायेगा और  केवल जन्म  और मर्त्यु कि यथार्थता ही शेष बचेगी |

Thursday, March 14, 2013

kitna Badal Gaya Insan - कितना बदल गया इंसान

परिवर्तन और व्यापर  कि ऐसी बयार चली है की इंसान और इंसानियत भी इससे नहीं बच सकी, इंसान चंद रुपयों की जरुरत के लिए इतना  बदल गया कि उसे अपना धरम और ईमान भी सरेबाजार नीलाम करने में कोई परहेज नहीं रहा, आज आलम ये है की आदमी अपने अस्तित्व और वजूद को साबित करने के लिए या अपने थोड़े से स्वार्थ की पूर्ती के लिए किसी का कितना भी बड़ा नुकसान करने से पीछे नहीं हटता बल्कि उसे दूसरों को प्रताड़ित करने में आनंद की अनुभूति होती है । शायद आज के इंसान को ये लगता है कि  उनकी उन्नति दूसरों की अवनती पर निर्भर है यही कारन है की वो दूसरों को असफल कर अपनी सफलता का मार्ग खोजता है । 
छोटी सी जिंदगी है, वो भी आज है पर कल का कोई ठिकाना नहीं, फिर  हम इसे आपसी सौहार्द और प्रेम के साथ क्यों नहीं बिता सकते, क्यों नहीं हम लोगों की ख़ुशी और मुस्कराहट का कारक बन सकते, क्यों नहीं हम आपसी मतभेदों और मनभेदों को दूर कर अपने आस पास खुशहाली का वातावरण तैयार कर सकते ...... शायद इसलिए कि हमारा मन और मस्तिष्क अब स्वाभिमानी नहीं अभिमानी हो चुका है, हम कुछ हासिल करने के नाम पर बहोत कुछ खो चुके हैं, हम जितनी उच्च स्थति को हासिल कर रहे हैं उतनी ही निम्नता और संकीर्णता हमारे ह्रदय में समाती जा रही है, पैसा अब हमारी जरुरत नहीं बल्कि हमारे अभिमान का कारक बन चुका है, अब घरों पर केवल  नाम और ओहदे बचे है इंसान और इंसानियत पद और प्रतिष्ठा के दांवपेंच में कहीं दफ़न हो चुकी है ।
हमें याद रखना चाहिए कि हमारे कर्म ही हमारी सफलता का निर्धारण कर सकते हैं, अगर हम सोचते है की किसी को परेशान करके हम चैन से जी पाएंगे तो ये हमारी गलत फहमी है क्योंकि अगर हम किसी के साथ बुरा करने का प्रयास करते हैं तो इश्वर हमारे साथ भी बुरा करने वाला कहीं ना कहीं तैयार रखता है और वक़्त आते ही हमें हमारे कर्मों का फल मिल जाता है।